Politics

UP Election Result Impact: ब्राह्मणों से उठा मायावती का भरोसा, फिर कोर वोट बैंक की ओर लौटेगी बसपा?

ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी दिल्ली जाएगा। 2007 में यूपी की सत्ता में बहुमत में आने वालीं मायावती की बीएसपी ने यह नारा उस वक्त दिया था। ऐसे ही कई नारे थे, जिनके जरिए सवर्णों और खासतौर पर ब्राह्मणों को लुभाने की बसपा ने कोशिश की थी। बड़ी संख्या में ब्राह्मणों को टिकट दिए और वे जीते भी।

फिर सरकार बनी तो सतीश चंद्र मिश्रा, नकुल दुबे, रामवीर उपाध्याय समेत कई नेताओं को उसमें हिस्सेदारी भी मिली। लेकिन फिर 2012 में समाजवादी पार्टी की सत्ता में वापसी हो गई, इसके बाद भी बसपा 25 फीसदी वोट शेयर के साथ मुख्य विपक्षी दल बनी रही।

2017 के नतीजे थे बसपा के लिए वेकअप कॉल

सपा की जीत के बाद उसका चेहरा अखिलेश यादव बने और सीएम के तौर पर कामकाज संभाला, लेकिन हालात तेजी से बदले और 2014 में भाजपा को केंद्र की सत्ता मिली। इसके बाद उसने यूपी पर भी फोकस तेज किया और 2017 में पहली बार 300 से ज्यादा सीटें जीत लीं। भाजपा ने एक तरह से क्लीन स्वीप किया था और दूसरे नंबर की पार्टी सपा भी 47 सीटों पर ही सिमट कर रह गई।

लेकिन उससे कहीं बड़ा झटका बसपा को लगा, जो मुख्य विपक्षी दल भी नहीं रही और 19 सीटों से ही संतोष करना पड़ा। इस तरह करीब दो दशक बाद यह स्थिति आई, जब बसपा राज्य में मुख्य विपक्षी दल भी नहीं रही। ब्राह्मणों पर ज्यादा फोकस बीएसपी के लिए बेकार रहा?

मायावती के लिए 2017 का चुनाव वेकअप कॉल हो सकता था, लेकिन उसे उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। हाथरस जैसे मुद्दों पर सड़कों पर उतरने की बजाय मायावती हमेशा काडर और सामाजिक समीकरण के भरोसे ही रहीं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इससे दलित वर्ग में भी यह छवि बनी कि मायावती उनके मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं हैं।

एक तरफ दलित वर्ग में ऐसी छवि बनना और दूसरी तरफ भाजपा को मजबूत देख सवर्णों का उसमें चला जाना, मायावती के लिए दोहरे झटके की तरह था। उसका असर 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के तौर पर सामने है। ब्राह्मणों पर ज्यादा फोकस बीएसपी के लिए बेकार रहा?

मायावती के लिए 2017 का चुनाव वेकअप कॉल हो सकता था, लेकिन उसे उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। हाथरस जैसे मुद्दों पर सड़कों पर उतरने की बजाय मायावती हमेशा काडर और सामाजिक समीकरण के भरोसे ही रहीं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इससे दलित वर्ग में भी यह छवि बनी कि मायावती उनके मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं हैं।

एक तरफ दलित वर्ग में ऐसी छवि बनना और दूसरी तरफ भाजपा को मजबूत देख सवर्णों का उसमें चला जाना, मायावती के लिए दोहरे झटके की तरह था। उसका असर 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के तौर पर सामने है। ब्राह्मणों पर ज्यादा फोकस बीएसपी के लिए बेकार रहा?

मायावती के लिए 2017 का चुनाव वेकअप कॉल हो सकता था, लेकिन उसे उन्होंने गंभीरता से नहीं लिया। हाथरस जैसे मुद्दों पर सड़कों पर उतरने की बजाय मायावती हमेशा काडर और सामाजिक समीकरण के भरोसे ही रहीं। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि इससे दलित वर्ग में भी यह छवि बनी कि मायावती उनके मुद्दों को लेकर गंभीर नहीं हैं।

एक तरफ दलित वर्ग में ऐसी छवि बनना और दूसरी तरफ भाजपा को मजबूत देख सवर्णों का उसमें चला जाना, मायावती के लिए दोहरे झटके की तरह था। उसका असर 2022 के विधानसभा चुनाव के नतीजों के तौर पर सामने है।

अब गिरीश चंद्र जाटव को बनाया लोकसभा में पार्टी का नेता

चुनाव की तैयारी के नाम पर कुछ महीनों पहले से मायावती लगातार ब्राह्मण सम्मेलन कर योगी राज में उनके उत्पीड़न की बात कर रही थीं। लेकिन जमीन पर उसका असर नहीं दिखा। यही वजह है कि अब मायावती एक बार फिर से अपने कोर दलित वोट बैंक की ओर बढ़ती दिख रही हैं।

उसमें भी उनका खास फोकस जाटव समाज को पार्टी के साथ लामबंद करने पर है। यही वजह है कि ब्राह्मण समुदाय से आने वाले रितेश पांडे को हटाकर जाटव बिरादरी के गिरीश चंद्र जाटव को उन्होंने अब लोकसभा में पार्टी का नेता बना दिया है। इसके अलावा अन्य पिछड़े वर्ग से शिरोमणि वर्मा को उपनेता बनाया गया है।

पूरी खबर देखें

संबंधित खबरें

error: Content is protected !!