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जिस राजनीति लक्ष्य में राष्ट्रवाद न हो वह स्वार्थ मात्र है

सुनीता कुमारी बिहार

लोकतंत्र की पहली प्राथमिकता राष्ट्रवाद है,एवं किसी भी देश का लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब देश के प्रत्येक नागरिक में राष्ट्रवाद कुट कुट कर भरा हो। चाहे वह आम जनता हो या जनप्रतिनिधि। लोकतंत्र को सफल बनाने के लिए देश के प्रत्येक व्यक्ति के ऊपर देश की सुरक्षा तथा देश के विकास की जिम्मेदारी होती है।इसी जिम्मेदारी का नाम राष्ट्रवाद है।

राष्ट्रवाद निस्वार्थ भाव का नाम है, इसमें व्यक्ति निस्वार्थ होकर देश की सेवा, देश की रक्षा, देश के विकास का प्रण लेता है और लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में शासन का भागीदार बनता है।लोकतंत्र में शासन तंत्र को चलाने के लिए ऐसे जनप्रतिनिधियों की आवश्यकता होती है जो, जनता की जरूरतों को ध्यान में रखकर काम करें, और हर अगली पीढ़ी को शासन व्यवस्था में बने रहने का मौका दें।

परंतु हमारे देश के लोकतंत्र में यह देखा गया है कि, जनप्रतिनिधि को राष्ट्रवाद की अपेक्षा अपने निजी स्वार्थ की ज्यादा चिंता होती है ?यही एक बहुत बड़ा कारण है कि हमारे देश में बड़े-बड़े राजनीति परिवार राजनीति में बने हुए हैं ।एक पीढ़ी से लेकर दूसरी पीढ़ी भी राजनीति कर रही है ,एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी को सत्ता विरासत में मिल रही है।

देश के हर व्यक्ति को राजनीति में भाग लेने का पूरा हक है परंतु हमारे देश की राजनीति में राजनीतिक राजघरानों की इतनी भीड़ जमा है जो राष्ट्रवाद को नही लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था में परिवारवाद को बढ़ावा दे रही है ,स्वार्थवाद को बढ़ावा दे रही है।

प्रत्येक वर्ष किसी न किसी राज्य में विधानसभा चुनाव होते हैं। 2022 में भी पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं ,और इस राजनीति परिदृश्य में जो स्थिति उभर कर आ रही हैं ,इससे यही लगता है कि राजनीति में ऐसे लोगो का जमवाड़ा है जो निस्वार्थ भाव से राजनीति करने में अक्षम है।राष्ट्रवादी विचारधारा पर चलनेवाले लोगों काफी कम है ऐसा लगता है जैसे देश में राष्ट्रवादी विचारधारा का कोई मोल ही नही है।

पार्टी की टिकट ना मिलने पर दल बदलना, अपनी पुरानी पार्टी पर कीचड़ उछालना, राष्ट्रवाद का हवाला देकर , विकास के कार्यों में सहयोग देने जैसी बातें करना ,बिल्कुल ही निराधार लगता है।
ऐसे लोग ना तो देश के प्रति समर्पित होते हैं और ना अपने कार्य के प्रति ?इन्हें सिर्फ और सिर्फ ताउम्र राजनीति करनी होती है ऐसे लोग राष्ट्रवाद नहीं बल्कि स्वार्थवाद में लिप्त होते है।

आंकड़े बताते हैं कि, यूपी में पिछले चार चुनाव में चालीस फीसदी मौजूदा विधायकों को पार्टियों ने टिकट दिया। 2012 में सिर्फ एक तिहाई लोगों को पार्टी ने टिकट दिया जो पहले जीत चुके थे। 2017 में दोबारा चुनाव लड़ने वाले 30 प्रतिशत नेता ही विधायक बन पाए थे। इसीलिए जब टिकट कटने की नौबत आती है तो नेता तुरंत दल बदलने की प्रकिया शुरू कर देते है ,दूसरे दल को पसंद कर लेते हैं।

राष्ट्रवाद की भावना तो दूर की बात है ये पार्टीवाद पर भी कायम नही रहते है।
चुनाव नजदीक आने पर दल बदलने की कुप्रथा हमारे देश में लंबे अरसे से चला आ रहा है।दल बदल कर सिर्फ नेता, विधायक या सांसद ही नहीं बनते बल्कि दल बदलकर राजनेता प्रधानमंत्री तक बने हैं।

देश में 1957 से 1967 तक की अवधि में करीब 542 बार सांसद-विधायकों ने अपने दल बदले। 1967 में चौथे आम चुनाव के पहले वर्ष में भारत में 430 बार सासंद- विधायक ने दल बदलने का रिकॉर्ड बनाया ।

1967 के बाद एक और रिकॉर्ड बना, जिसमें दल बदलुओं के कारण 16 महीने के भीतर 16 राज्यों की सरकारें गिर गईं।उसी दौर में हरियाणा के विधायक गयालाल ने 15 दिन में ही तीन बार दल-बदल के हरियाणा की राजनीति में एक नया रिकॉर्ड बनाया था। जिसके बाद कहावत बनी आया राम-गया राम.

साल 1998-99 में गोवा दल-बदल और बदलती सरकारों के कारण सुर्खियों में रहा था जब 17 महीने में गोवा में पांच मुख्यमंत्री बदल गए थे। राजस्थान सरकार में राज्य मंत्री राजेंद्र गूढ़ा ने कहा था कि,” मैं चुनाव बसपा से जीतता हूं…फिर मैं कांग्रेस में जाकर मंत्री बन जाता हूं…जब कांग्रेस में दरी उठाने का वक्त आता है तो कहता है कि भाई कांग्रेस अब तुम संभालो…फिर दोबारा चुनाव में बहन जी से टिकट ले आया. बसपा से कांग्रेस में आ गया, मंत्री बन गया।मेरे खेल में कोई कमी है क्या।

राजस्थान में मंत्री राजेंद्र गूढ़ा दल बदलकर ही हर बार खेल करते आ रहे हैं।राष्ट्रवाद का इनमें कही से अतापता नही है।ऐसे लोग राष्ट्रवाद की बात मात्र जनता को बेवकूफ बनाने के लिए करते है।

मात्र स्वार्थ सिद्ध करनेवाले नेतागण को बैन करना चाहिए।ऐसे नेताओ को, जनता को भी बहिष्कार करना चाहिए। देश में राष्ट्रवाद है तभी देश सुरक्षित और विकसीत होता है। इसी अवधारणा को बढ़ावा देना जरूरी है।जय हिंद

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