मानव और प्रकृति का संवाद
मानव और प्रकृति का संवाद
नूतन राय मुंबई महाराष्ट्र
मानव=हे प्रकृति तुम रूष्ट हो क्यो?
कैसा ये कहर बरसा रही |
इस धरती से मानव की
संख्या क्यो तुम घटा रही ?
क्या? प्रलय की तैयारी करके
तुम रूप बदल कर आई हो ?
धरती के कोने-कोने में
महामारी बन कर छाई हो ।।
बिन अपराध सजा पाते
इन्साफ तुम्हारा कैसा है ?
सारी सृष्टि में मचा हुआ
उत्पात बताओ कैसा है?
प्रकृति=
हे मानव सुन तुने ही
ये मुश्किल दौर बूलाया है
तुने गंगा का अमृत जल
विष घोर के जहर बनाया है ।।
विज्ञान के ज्ञान में अंधे हो
तूने असली ज्ञान भूलाया है
मेरे वन उपवन को कांट के
इसको निर्जन तुने बनाया है ।।
धरती से अंबर तक तुने
गैस धुआ फैलाया है
अब भी बोलो क्या धरती पर
मैने कहर मचाया है ।।
अभी ना आँखे खोली तो
ऐसे ही मारे जाओगे
जल और हवा के अभाव में
ऐसे ही प्राण गवाओगे ।।
अभी वक्त है जागो तुम
संघर्ष करो मत भागो तुम
मुझको तुम हरा-भरा करदो
गंगा का जल निर्मल करदो ।।