शारदे माँ-अज्ञानता से हमे तार दे माँ
निवेदिता मुकुल सक्सेना झाबुआ मध्यप्रदेश
पृथ्वी पर नवसृजन का आगमन आराध्या देवी माँ भगवती वागेश्वरी के प्रकटोत्सव से सम्पूर्ण भारत मे बसन्त पंचमी के रूप में मनाया जाता हैं । उगते सूर्य की किरणों सा बसन्ती रंग लिए ऋतु राज चहु ओर अपनी किरणों का स्वास्थ व समृद्धि की नवऊर्जा का संचार करता है।
बसन्त के आते ही फसलों के पकने, आमो का बौर से लद जाना ,फूलों की खुशबू से वातावरण का महक जाना , बसंती रंग की सरसो का खेतो म का लहलहा जाना , कोयल की कुहुकने की बारी आना ,नवपल्लव का शाखाओं पर आना ठंडी हवा के झोको से तन को स्वस्थ हवाओ से रोमांचित कर जाना,वो चूल्हे पर बनते केसरिया भात की खुशबू ,व बालक का विधारम्भ संस्कार दिवस के रूप में भी मनाया जाता हैं ।
कुल मिलाकर प्रकृति से जुड़ा हम भारतीयों का जीवन हर ऋतु से जीवन मे उमंग व उल्लास ले ही आता हैं फिर ये तो ऋतुओं के राजा ऋतु राज बसन्त का आगमन है।
भारत मे हर तीज त्योहार जहाँ स्वास्थ व समृध्दि ,जिंदगी में अलग ही उमंग व उल्लास भर देता हैं वही ऋतू राज बसन्त कई उपमाओं से जाना जाता रहा है । भगवान श्रीकृष्ण ने इस ऋतु को ऋतुनां कुसुमाकर: से कहा ।
माँ सरस्वती ने इस पृथ्वी पर वीणा की तरंग से जीवन को रोमांच से भर ऊर्जा का प्रवाह किया व बुद्धि दाता ज्ञानदायिनी से सबको वर देती हैं और उनके आशीष की आशावादी लहर कर्म की और प्रेरित करती हैं व माँ सरस्वती की आराधना हमे अज्ञानता से दूर करती आखिर माँ माँ होती हैं बच्चे जब जब पुकारे वह उनकी रक्षा करती हैं ,उनका ध्यान रखती हैं। बच्चे आखिर बड़े भी हो जाये वह माँ के लिए बालक स्वरूप ही रहते है।
लेकिन आखिर कब तक ये मानव मंदबुद्धि बालक की तरह अगर विनाश की और बढ़ चले उसी प्रकृति की जिसमें वह रह रहा हैं जहां से उसे प्राणवायु मिल रही उन वृक्षो को ही काट काट कर बसंत पंचमी पर नई बिल्डिंगों की पूजा करता हैं ।आज दुखद स्थिति तब होती हैं बुद्धिजीवी मानव वृक्षों को काटने के बाद गमलों में जीवन जीने की दशा ले आया है या पतझड़ के सूखे पत्तों को कचरा बढ़ रहा मानकर वृक्ष लगाना ही नही चाहता ।
आखिर वह अपनी ही माँ के हाथों से सजी हुई सृष्टी का विनाश कर लोहे के सरियो का जंगल सजा रहा ,जो सजाया ना होकर स्वयं के भविष्य के लिए दर्द भरी काल कोठरी बना रहा जहाँ ना ऋतुओं का आगमन होगा , ना ही पक्षियों की चहचाहट ना ही ऋतु अनुसार बारिश व गर्मी यही है ग्लोबल वार्मिंग जो अब हमारी पृथ्वी पर इस त्राहि-त्राहि का परिणाम देने आ गयी हैं।
आज बसन्त की कल्पना अगर शहरों में करे तो सिर्फ बसन्ती वस्त्र से कर सकते है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में नगरीय सभ्यता का आगमन अब ये वैलेंटाइन डे में गुम कर रहा हैं वही माँ सरस्वती की सच्ची आराधना को भूलता जा रहा हम कह सकते है । आज कुछ ही जगह जो कलयुग की धारणा बनता जा रहा। जिस माँ के आंचल में पले बढ़े उसी की छांव में रहकर ज्ञान पाया उसके आशीषों से कई सफलतायें मिली ओर वो बड़े ।
होते होते माँ को ही ठोकर खाने पर मजबूर कर देते है। आज उन्ही माँ की मूर्ति जो प्राचीन समय से भारत मे विराजमान थी जिसकी जन जन आराधना किया करते थे। क्या भारतवासी अपनी ही माँ की आराधना करने में लाचार ओर कुंठित महसूस कर रहा क्या सिर्फ माँ सरस्वती की तस्वीर पर पूजन कर देने से इतिश्री होती हैं या माँ के दिये गुणों से बुद्धि का विस्तार ना कि कुंठा का विस्तार जिससे ज्ञान नही सिर्फ अज्ञानता का मस्तिष्क में प्रसार हो रहा हैं ।
धरती पर जन्म लेने व मरने तक का सफर ही काफी नही हैं । मानव जन्म लेना ही अपने आप मे सम्पुर्ण कलाकृतियों का जन्म ले लेना है । आवश्यकता है , सिर्फ उसे सार्थक रूप से फ़लीभूत करने की। आज जब पृथ्वी पर कही बीमारी कही धर्म की हानि तो कही आतंकी हमले में मानव डर डर कर जी रहा हैं तो कही सच को छुपा कर भौतिकवाद में अंधा होकर लाचार व्यक्तियों पर अत्याचार कर रहा या उनको पराधीन कर रहा ।
माँ सरस्वती जिनकी असीम कृपा से शुभ शब्दों का जीवन मे आगमन होता हैं जो कलम की देवी हैं सच व गलत को बुद्धि से न्याय दिलाने की कृपा सब पर रखती हैं उनके प्रकटोत्सव पर कुछ सृष्टि को फिर से हराभरा कर उसे उसका अस्तित्व लौटना होगा तभी वास्तविक बसन्तोत्सव सार्थक होगा । भारत मे हर ऋतु का तीज त्योहार से स्वागत करना वैज्ञानिक तथ्यों पर आधरित होता हैं जो जीवन सार्थक दृष्टिकोण देता हैं।
जिम्मेदारी हमारी
**माँ सरस्वती की आराधना सृष्टि को अज्ञानता से तारती हैं वही प्रक्रति से हमे जोड़ती है।
*मोहान्धकारभरिते ह्रदये मदीये मात: सदैव कुरु वासमुदारभावे । स्वीयाखिलावयवनिर्मलसुप्रभाभि: शीघ्रं विनाशय मनोगतमन्धकारम् ॥
( हे उदार बुद्धिवाली माँ ! मोहरूपी अन्धकार से भरे मेरे हृदय में सदा निवास करो और अपने सब अंगो की निर्मल कान्ति से मेरे मन के अन्धकार का शीघ्र नाश करे)