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बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए गुरूकुल परम्परा को जीवित करना शिक्षा के हित में होगा

उषा बहेन जोशी पालनपुर
गुजरात

हमारा देश पुरातन काल से ही , शिक्षा के क्षेत्र में विश्व में अग्रणी रहा है ।दुनिया के अनेक क्षेत्रों से,शिक्षार्थी शिक्षा लेने हमारे यहां आते थे। देश के हरएक व्यक्ति को ,उसके जीवन मे जीवनोपयोगी सर्वश्रेष्ठ शिक्षा देनाभारत की विशेषता रही है। शिक्षा प्रदान करने की लगभग सभी पद्धति एवं सोच हमने विकसित की थी।भारतीय शिक्षा का यही उद्देश्य हमेशा से रहा है
” सा विद्या या विमुकतये” ।,

मुक्ति का अर्थ केवल आध्यात्मिक नहीं है, हमारा ज्ञान सभी रोगों से मुक्ति प्रदान करता है यथा -गरीबी, अज्ञानता,विषाद, मूर्खता जैसे अनगिनत बंधन से मुक्त करता है।
आज हमें एक ऐसे शिक्षक, गुरु की आवश्यकता है, जो अवनी मे फैले अंधकार को हटाकर, ज्योति की ओर प्रयाण करना शिखा दे।

” तमसो मा ज्योतिर्गमय, असतो मा सदगमय।”
हमारे शिक्षक श्रेष्ठ कर्म करते है ,बच्चों को पढाते है ज्ञान देते है। शिक्षक को परमात्मा ने,नन्हें फुल जैसे बच्चों का
भाग्य विधाता बनने का सुअवसर दिया है ,तभी तो कोई, डॉक्टर, एन्जिनियर,वकील, सी.ए., नेता अभिनेता या सर्वश्रेष्ठ ,व्यक्ति बनते है।

शिक्षक ही, शिक्षार्थियों के अंतःकरण मे परम ज्ञान प्रगट करते है, जिसके प्रकाश से जीवन भर मार्गदर्शन मिलता है। अज्ञान का अंधकार दुर होते ही लक्ष्य की प्राप्ति होती है। .
एक नन्हा सा फुल जब पहली बार स्कुल जाता है तो उसके मन में कई प्रकार का मंथन चलता है !, आनंद, जिज्ञासा,क्षोभ,, भय,रोमांच जैसे भाव बच्चों के चेहरे पर होते है ,मैंने देखा है।तब ये शिक्षक बहुत नजाकत से प्रेम से बच्चों को संभालते है।

बच्चे कोमल डाली जैसे होते है,जैसा मोड दिया जाए वैसे ही मुड़ जाते है। झूकाओ तो झुकने लगते है ,उठाओ तो उठने लगते है। शिक्षक खुब नजाकत से उन्हें संवारते है। जैसे जैसे बच्चे बड़े होते हें, उनके सपनों की नींव को भी एक शिक्षक मजबूती देते है।

शिक्षा मनुष्य के विकास की महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था, ” जो शिक्षा सामान्य मनुष्य को जीवन संग्राम मे, समर्थ नहीं बना सकता, जो मनुष्य मे,चारित्रबल परहित, तथा शेर जैसा साहस पैदा नहीं कर सकता वो सही नहीं है, जिस शिक्षा से मनुष्य अपने बलपर खड़ा रह सके वही सच्ची शिक्षा है।”

वास्तव मे हमें ऐसे ज्ञान की जरुरत नही होती जिसे रटटा मारकर प्राप्त किया जाता है , तोता की तरह रटने से कोई लाभ नहीं होता है।हमें ऐसे ज्ञान की जरुरत है,जो मानसिक शक्ति का विकास कर सके, चारित्र निर्माण कर सके। स्वाभिमान, स्वावलंबन का निर्माण बच्चों में कर सके ।

अगर ऐसा होगा तो पढाई की टेक्नोलॉजी अपने आप विकसित होगी। महर्षि अरविंद ने शिक्षा की पूर्ति के लिए, भौतिक, शारिरिक, मानसिक, आत्मिक और आध्यात्मिक ये पांच ज्ञान पर जोर दिया था।सब एक दूसरे के पूरक है, एवं जीवन के अंतिम क्षण तक मनुष्य के व्यक्तित्व को पूर्णता प्रदान करता है।

आज के बच्चे, आनेवाले कल के , समाज के कर्णधार है। जैसा ज्ञान एवं संस्कार का बीज उनमें बोया जाएगा , वे वैसे ही बनेगे। आज के बच्चे मानसिक रूप से तरोताजा है फिर भी परवरिश में कोई कमी नही होनी चाहिए।

बच्चों का ख़याल रखना हर माता पिता और शिक्षक की पहली जिम्मेदारी है। बच्चों में उच्च कोटी की सोच विकसित करना माता पिता व शिक्षक का काम है। शिक्षा ऐसी होनी चाहिए जो सीधे बच्चों के दिमाग से हृदय मे उतरनी चाहिए।

एक शिक्षक का कर्तव्य है कि, बच्चों के मन से पढ़ाई का भय दुर भगाये। बच्चों को समझाये कि, “सफल होने के लिए, आप अपने आप क़ो पहचानों, विश्वास रखो, आप में शक्ति का भंडार है,प्लान बनाओ, और प्रतिज्ञा करो ,समझ को अपनी शक्ति की बनाओ बनाओ।

पढ़ाई में बहानेबाजी से मिलों दुर रहो,तुम्हारी कड़ी मेहनत से तुम्हारा नसीब चमकेगा। आत्मविश्वास और सकारात्मक सोच से यादशक्ति मे बढ़ोतरी होगी।”” शिक्षक क़ो ,शिक्षार्थियों की सर्जन शक्ति को भी तो बढावा देना चाहिए।

आज हमें सात,आठ विषय कठिन लगते है।हमारे गुरु कुलों मे चौसठ विद्याएं सिखाई जाती थी। राजा हो या रंक सभी के संतान एक ही गुरु कुल मे पढते थे। गुरु एवं गुरु माता उन्हें धर्म, आध्यात्म दर्शन, आत्मज्ञान, ब्रह्मविध्या, साधना, स्वाध्याय का भी अभ्यास कराते थे। सत्य एवं ज्ञान के उपदेश से परिपूर्ण कराते थे।

जैसे गौ माता अपने दुध से अपने बच्चों का पालण तथा मन को तृप्त करती है। वैसे ही शिक्षक के सहयोग से शिक्षार्थि सर्वश्रेष्ठ बनते है। . अँग्रेज़ों हमें कभी भी हरा नही सकते थे ,यदि मैकोले ने हमारे गुरुकुलों को नष्ट नही किया होता। अंगेजो ने हमारी संस्कृति को दबाकर, पाठ्यक्रम मे गलत शिक्षा डालीं ।

हमारी संस्कृति को पश्चिमी सभ्यता में रंगने की कोशिश की। हमारी संस्कृति क़ो फिर से जीवित करना होगा। प्राचीन शिक्षा के पद्दति को फिर से लागू करना होगा। हमें भारत के हर एक गांव, शहरों मे गुरुकुल बनाना होगा। .

वर्तमान में शिक्षा का व्यापारीकरण भी हुआ है। कई जगहों पर अच्छे एवं होशियार शिक्षकों का आर्थिक शोषण भी होता है। बढ़ती प्रतिस्पर्धा के कारण बच्चों को पढ़ाई बोझ की तरह लगती है। कईबार मातपिता का बच्चों पर अनावश्यक दबाव भी बच्चों में पढ़ाई के बोझ बढ़ाती है। व्यक्तित्व का विकास नहीं होने देती है। उच्च प्रतिभावान विद्यार्थी भी कई बार आत्महत्या भी कर लेते है!

शिक्षा को सही अर्थ मे लिया जाए त़ो, हम सभी की जिम्मेदारी है कि,शिक्षा प्रदान करने की सही विधि का प्रयोग किया जाए। बच्चों के हिसाब से बच्चों को शिक्षा दिया जाए, तभी बच्चें पूर्णरूपेण शिक्षित होगें।

जब बच्चा छोटा होता है, माता पिता , दादा ,दादी पड़ोसियों से अपने आप ज्ञान ग्रहण करने लगता है। परिवेश का असर बच्चों पर सीधा पड़ता है।बच्चा जो देखता है वही सिखता है।इसलिए घर समाज स्वस्थ होना चाहिए। बच्चें की पहली गुरु मां होती है।एक मां से बढकर कौन बच्चें को शिक्षा दे सकता है। एक माँ से जो बच्चा ज्ञान अर्जित करता है उस संपत्ति का नाश कभी नही होता है।

ज्ञान, अखंड होता है। सिर्फ शिक्षक ही क्यों..? हम सभी के उपर ऋषि परंपरा, गुरुकुलों क़ो पुनः स्थापित करने की जिम्मेदारी है। हमारी करनी एवं कथनी मे एकजूटता होनी चाहिए।देश के बच्चों क़ो तेजस्वी,ओजस्वी,,वर्चस्वी,विध्यावान,गुणवान,बलवान, धनवान बनने की राह में माध्यम बनना हम सब की जिम्मेदारी है।

आओ, हमसभी,शिक्षक, गुरुजन,, विद्धान देश की प्राचीन संस्कृति और गौरव का पुनरुत्थान का प्रयास करे।व्यक्तिगत तौर पर या जैसे भी हो,शिक्षा के सार्थक रुप को पुर्नजीवित करने मे सहयोगी बने।

बच्चों मे,कर्तव्यनिष्ठा, नैतिकता, मानवता, तथा निष्पक्षता के उत्तम गुणों का विकास किया जाय त़ो हमारा आनेवाला कल स्वर्णमय होगा ।
“सा विध्या या विमुक्तये” सार्थक बनेगा। स्वस्थ राष्ट्र निर्माण होगा, राष्ट्रप्रैमी,चारित्रवान स्री पुरुषों का निर्माण होगा।भारत जगत गुरु होगा, यही.अंत:करण की अभिलाषा हे।। जय मां भारती।।

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